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स॒जोषा॑ इन्द्र॒ वरु॑णेन॒ सोमं॑ स॒जोषाः॑ पाहि गिर्वणो म॒रुद्भिः॑। अ॒ग्रे॒पाभि॑र्ऋतु॒पाभिः॑ स॒जोषाः॒ ग्रास्पत्नी॑भी रत्न॒धाभिः॑ स॒जोषाः॑ ॥७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sajoṣā indra varuṇena somaṁ sajoṣāḥ pāhi girvaṇo marudbhiḥ | agrepābhir ṛtupābhiḥ sajoṣā gnāspatnībhī ratnadhābhiḥ sajoṣāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स॒ऽजोषाः॑। इ॒न्द्र॒। वरु॑णेन। सोम॑म्। स॒ऽजोषाः॑। पा॒हि॒। गि॒र्व॒णः॒। म॒रुत्ऽभिः॑। अ॒ग्रे॒ऽपाभिः॑। ऋ॒तु॒ऽपाभिः॑। स॒ऽजोषाः॑। ग्नाःपत्नी॑भिः। र॒त्न॒ऽधाभिः॑। स॒ऽजोषाः॑ ॥७॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:34» मन्त्र:7 | अष्टक:3» अध्याय:7» वर्ग:4» मन्त्र:2 | मण्डल:4» अनुवाक:4» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (गिर्वणः) वाणियों से स्तुति किये (इन्द्र) ऐश्वर्य्य के देनेवाले ! आप (वरुणेन) श्रेष्ठ पुरुषार्थ से (सजोषाः) तुल्य प्रीति के सेवनेवाले (सोमम्) ऐश्वर्य्य की (पाहि) रक्षा करो और (अग्रेपाभिः) प्रथम रक्षा करनेवाले (मरुद्भिः) मनुष्यों के साथ (सजोषाः) तुल्य प्रीति सेवनेवाले हुए ऐश्वर्य्य की रक्षा करो और आप (रत्नधाभिः) द्रव्यों को धारण करनेवाली (ग्नास्पत्नीभिः) पतियों की स्त्रियों के साथ (सजोषाः) समान सेवनेवाले ऐश्वर्य्य की रक्षा करो और आप (ऋतुपाभिः) ऋतुओं में रक्षा करनेवालों के साथ (सजोषाः) समान सेवन करनेवाले ऐश्वर्य्य की रक्षा करो ॥७॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! आप लोग श्रेष्ठ पुरुषों के मेल से ऐश्वर्य्य की उन्नति करो और जो विनाश से पहिले और ऋतुओं में रक्षा करते हैं और जो अपनी स्त्री पतिव्रता होती है, उन मनुष्यों और उस स्त्री के साथ तुल्य प्रीति, सुख-दुःख और लाभ का सेवन करते हुए सब के प्रिय होओ ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे गिर्वण इन्द्र ! त्वं वरुणेन सजोषाः सोमं पाह्यग्रेपाभिर्मरुद्भिः सह सजोषाः सन्त्सोमं पाहि त्वं रत्नधाभिर्ग्नास्पत्नीभिः सह सजोषाः सोमं पाहि त्वमृतुपाभिः सह सजोषाः सोमं पाहि ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सजोषाः) समानप्रीतिसेवी (इन्द्र) ऐश्वर्य्यप्रद (वरुणेन) वरेण पुरुषार्थेन (सोमम्) ऐश्वर्य्यम् (सजोषाः) (पाहि) (गिर्वणः) गीर्भिः स्तुत (मरुद्भिः) मनुष्यैः सह (अग्रेपाभिः) येऽग्रे पान्ति रक्षन्ति तैः (ऋतुपाभिः) ये ऋतुषु पान्ति तैः (सजोषाः) (ग्नास्पत्नीभिः) या ग्नाः पतीनां स्त्रियस्ताभिः (रत्नधाभिः) या रत्नानि द्रव्याणि दधति ताभिः (सजोषाः) ॥७॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यूयं सत्पुरुषसन्धिनैश्वर्य्यमुन्नयत ये विनाशात् पुरस्तादृतुषु च रक्षां कुर्वन्ति या च स्वपत्नी पतिव्रता भवति तैस्तया च सह समानप्रीतिसुखदुःखलाभसेविनः सन्तः सर्वेषां प्रिया भवत ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो! जे विनाश होण्यापूर्वीच रक्षण करतात व ऋतूमध्येही रक्षण करतात, अशा श्रेष्ठ पुरुषांच्या संगतीने ऐश्वर्य वाढवा, तसेच ज्यांच्या स्त्रिया पतिव्रता असतात अशा माणसांबरोबर प्रीती करून व सुख-दुःखाचे ग्रहण करून सर्वांचे प्रिय व्हा. ॥ ७ ॥